ये बढ़ते कदम


पता नहीं कैसे सब
यूँ बदल गया।
वो खिलता हुआ चेहरा मेरा,
अन्धेरी शाम के संग ढल गया।।

मैं सोचती हूँ अब भी,
ये कैसे हुआ और क्यूँ?
मैं टूटी तो नहीं,
फिर रुकी हुई हूँ क्यूँ?

मैं वजह धुंढने भी निकलूं,
तो हाथ कुछ नहीं आया।
बस खुद को रुका हुआ,
और हताश मैनें पाया।।

ये उदासी ये मायूसी,
शायद मैनें ही इन्हें रोका है।
आगे कैसे बढ़ना है छोड़कर,
इनकी वहज जनने में खुद झोका है।।